Monday, November 1, 2010

दीपावली पर बाबूजी तुम क्या-क्या खरीदोगे


खरीदो, खरीदो, अब खरीद भी लो।किस सोच में डूबे हो? मौका हाथ से निकला जा रहा है। दो खरीदो, तीसरा मुफ्त ले जाओ। खरीद लो, उपहार मिलेगा। सोना जीत सकते हो, चांदी तुम्हारी हो सकती है। किस्मत अच्छी हो तो बाहर यह जो चमचमाती कार है, इसे ले जाओ। देखिए, आप को  खरीदना ही चाहिए क्योंकि  खरीदारी का यही श्रेष्ठ समय है। छूट मिल रही है। उपहार मिल रहे हैं और क्या चाहिए? जो पिछले साल ख़रीदा  था , उसे बदल दो, नया ले जाओ। खरीदने के लिए आपके  पास पैसे हों ही, यह जरूरी नहीं। बस खरीदने को तैयार हो जाओ। बाकी हम पर छोड़ दो। हम हैं न। पैसे भी देंगे।
कमाल के आदमी हो अब तो खरीद ही लो। लो पकड़ो । जल्दी में हो तो पता दे जाओ, हम डोर डिलीवरी कर देंगे।
 खरीदारी के  इस मौसम में उपभोक्तावादी संस्कृति का  परचम बुलंद है। आपका  टी.वी. उनके  विज्ञापनों के काम आ रहा है।  बीच-बीच में आप चाहें तो खबर या सिनेमा भी देख सकते हैं। इसी दौरान ढेर सारी कम्पनियों क़ी ओर से दीपावली क़ी शुभकामनाएं भी ले लीजिए। बाजार लगातार आपके साथ है। घर से बाहर निकलें, होर्डिंग पर नजर पड़ेगी ही, विज्ञापन हाजिर है। दिन में तीन-चार बार मोबाइल पर मधुर स्वर में बालिकाएं लोन क़ी पेशकश कर रही हैं, आप मुश्किल से इंकार कर  पाते हैं लेकिन  आपको  यह एहसास भी होता है कि आपने ·किसी सुमधुर भाषिणी ·का दिल तोड़ दिया। सुबह सबेरे घंटी सुनकर आप दरवाजा खोलते हैं तो युवती नया प्रोडक्ट लेकर हाजिर है। कहां जाइएगा? आप शहर में रहते हैं तो दो-चार पैसे कमाते ही होंगे। न भी कमाते हों तो कुछ गिरवी रखने लायक तो होगा ही। बस, समझिए काम बन गया। लोग आपकी   मदद के लिए तैयार बैठें हैं, बल्कि खड़े हैं और पसरने के लिए तैयार हैं। हालात कुछ ऐसे हैं कि  आपको  लगेगा कि  हर दूसरा आदमी कुछ  खरीदने के  लिए आपके  ऊपर दबाव बना रहा है इनमें आपके परिजन भी शामिल हैं जो आपकी  खरीदने की  क्षमता के आधार पर ही तय करेंगे कि आप उन्हें कि
तना प्यार करते हैं।
अस्सी के  दशक  तक  लोग खरीदारी जरूरत के  हिसाब से करते थे। जितनी चादर उतना पैर पसारने की  कोशिश होती थी। अब बाजार चादर पसारने, बल्कि फाड़ देने पर जोर दे रहा है । पहले कर्ज को बोझ समझा जाता था। अब मानसिकता बदली है। घर में नया सामान स्टेटस सिम्बल है। मध्यवर्ग की क्रय शक्ति बढ़ी है और इसी शक्ति को  खींचने की  कोशिश है। बाज़ार त्योहारों को  शापिंग का अवसर मात्र बना देने पर तुला है। प्रगति की  संभावनाओं के  मद्देनजर उपहारों ·के  आदान-प्रदान का सिलसिला परवान पर है। हर स्रोत से उपभोग व आनंद खोजने में लगे लोगों को  न तो तीज-त्योहारों की आत्मा का पता है न ही ·कोई  सरोकार। ऐसे में आश्वचर्य नहीं क़ि दीपावली का अर्थ मिठाई खाओ, वस्तुएं खरीदो और पटाखे फोड़ो तक सिमटता जा रहा है।


(सभी ब्लोगर मित्रों, पाठकों, और टिपण्णी देने वाले शुभचिंतकों को दीपोत्सव की शुभकामनाएं! दीप पर्व आप सभी के जीवन  में सुख, समृद्धि, संयम और सौभाग्य का वर्षण करे. )

Wednesday, October 27, 2010

पिपिहरी और चोटहिया जलेबी

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के मेरे गांव की रामलीला आज सम्पन्न हुई रामलीला के बाद पास ही एक छोटे से मैदान में मेला लगता है। मेले से लौटे एक मित्र से दूरभाष के जरिए मेले के माहौल की जानकारी मिली। मन बचपन की गलियों में खो सा गया। याद आया, कैसे हीने पहले से मेले की तैयारियां होने लगती थीं। मेला मैदान में लगने से पहले ही सैकड़ों बार हमारे मन में लग जाता था. दिन गिने जाते थे. और फिर जिस दिन मेला वाला दिन होता, उस दिन सुबह अलग अंदाज में होती थी.मुश्किल से दोपहर होती. मेला स्थल पर पहुँचने का जो उल्लास था, उसके क्या कहने? दूर से विचित्र सी मिली-जुली आवाजें कानो में पड़ती थीं और कदमों में जैसे पंख लग जाते. आ जाओ जलेबी के खाने वाले, वारी गुलाब वाला है, ऐसा गट्टा कहीं नहीं मिलेगा, जैसी आवाजें. 
कई दिन पहले से बात-बात पर मां से पूछता था, मेला देखने के लिए इस बार पांच रूपए मिलेंगे ना? मां ने कभी  ना कहा हो याद नहीं आता लेकिन  से क्या  छुपाऊं, पूरे पांच रूप कभी नहीं मिले। यह अलग बात है कि 1970 के दशक के उन दिनों में दो रूपए भी बहुत थे.मेले  से लौटते समय बादशाह होने जैसी खुशी मिलती थी। जेब भरी रहती थी और हाथ भी. अन्य साथियों की जेबों में भी कोई बहुत ज्यादा नहीं होता था. सबके सुख और दुःख भी समान हुआ करते थे. पिपिहरी  बजाते हुए लौटते थे. महुए के पत्तों से बने दोनों में गरम-गरम चोटहिया जलेबी लिए हुए. चोटहिया  जलेबी गुड के सीरे से बनती थी और कसम से आज के किसी पंचतारा होटल में भी वैसा स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ शायद ही मिले. हाँ एक बार ऐसा हुआ क़ि आज तक भूल नहीं पाया.पडोसी चाचा के साथ मेला देखने गया. वहां एक आदमी 8 रुपये किलो बर्फी बेच रहा था. चाचा ने ख़रीदा तो मैंने भी खरीद लिया. पास में पूरे 2 रुपये थे, पूरे का खरीद लिया.  दोने में लेकर घर पहुंचा. नारा लगाया क़ि आओ सब लोग भर पेट बर्फी  खाओ. माँ ने चखते ही कहा क़ि यह  बर्फी नहीं, शक्कर मिला गेहूं का आटा था.मन ऐसा तिक्त हुआ क़ि क्या कहें.आज भी मैं और चाचा याद करके खूब हंसते हैं.
मित्र ने बताया क़ि  अब 
चोटहिया जलेबी की एकाध दुकान ही आती है और गुड के सीरे में डूबी जलेबियाँ नहीं मिलती. बच्चे पिपहरी आदि के बजाय काग वाली बन्दूक पसंद करते हैं, और यह भी क़ि मेला धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है. कुछ चाट के ठेले, कुछ मिठाई क़ी दुकानें,कुछ बिसारती के सामान.बस.
उस समय घर क़ी जरूरत क़ी अधिकांश चींजे मेले से ही खरीदी  जाती थी. यही कारण है कि बुजुर्ग और महिलाएं भी मेले का इंतजार करते थे. टिकुली, शीशा, फीता, लाली, महावर मेले में खरीदे जाते थे. दूर-दूर से व्यापारी आते. अनाज भी बिकता था, दलहन भी.
पता नहीं अब मेले से लौटते समय बच्चों को कैसा लगता होगा? वह आह्लाद अब वे कहाँ पाते होंगे? सच कहूँ तो वैसा  आह्लाद अब हमारे जीवन में भी कहाँ हैं? कुछ भी, कितना भी मिल जाए कम और फीका ही लगता है.

Wednesday, September 22, 2010

तुम जो मेरे मीत बन गए

तुम जो मेरे मीत बन गए
शब्द- शब्द से कविता फूटी
अक्षर- अक्षर गीत बन गए.

तुम बिन कुछ ऐसा था जीवन
जैसे  बिन चेहरे के दर्पण
जैसे धूल भरी  दोपहरी
जैसे बिन बारिश के सावन.

तुम जो मिले, मिल गए सुर-लय
हम भी एक संगीत बन गए.


 

Saturday, July 31, 2010

एसएमएस की मोहताज

फ्रेंडशिप डे (1 अगस्त) पर लिखा गया

एसएमएस क़ी मोहताज

अच्छा, तो आज फ्रेंडशिप डे है। चलो, एसएमएस कर देते हैं। मोबाइल में पहले से पड़ा एसएमए फारवर्ड किया और दोस्त होने का फर्ज निभा दिया। या फिर ज्यादा से ज्यादा कॉल ही कर ली। ठीक है, यार फिर बात करते हैं, है ना। ओके. बाई। महानगरीय जीवनशैली, कामकाज का तनाव, ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधाएं बटोरने की महत्वाकाक्ष के बीच दोस्ती जैसे एहसास ·के लिए समय ही कहां है? जहां खून के रिश्तों में भी मधुरता बीते जमाने की बात हो रही हो वहां दोस्ती कौन करे, किससे करे । जुड़ाव के लिए चाहिए विश्वास और हम दिन-रात जो कुछ देख रहे हैं, कर रहे हैं, उसमें हम जानते हैं ·क़ि सब कुछ किया जा सकता है, विश्वास को छोड़कर. विश्वास हमारे भीतर क़ी ऐसी जमीन है जो लगातार दरक रही है। हम स्वयं इतने डरे हुए हैं, क़ि सतर्कता से जीने के आदी हो गए हैं। झूठ का पूरा साम्राज्य हमारे इर्द-गिर्द पलने लगा है। चेहरे पर बनावट, मुसकान भी मतलब भर क़ी, नपी-तुली, प्रोफेशनल। ऐसे में दोस्ती सच्ची कैसे होगी? फिर दोस्त चाहिए भी क्यों? बटन दबाते ही इंटरनेट उपलब्ध है। दोस्तों का अम्बार लगा है। देसी-विदेशी, मेल-फीमेल, मनचाहा, और सब ·कुछ बतियाने का मौका भी। ऐसे में ·किसी जीते-जागते दोस्त के लिए स्थान कहां है? कहीं दूर बैठा, ख्वाबों-खयालों में खोया दोस्त बेहतर है। जब चाहो उसक़ी जुबान बंद क़ी जा सकती है, या फिर उसे बदला जा सकता है। उसे भी अपने से कोई उम्मीद नहीं। दोनों तरफ से टाइमपास। दोनों एक दूसरे का इस्तेमाल ·रते हैं, ·कुड़ेदान ·क़ी तरह। यह सुविधा किसी जीते-जागते दोस्त के साथ नहीं।

ऐसे में इस बात पर कौन विश्वास करेगा कि पहले लोग पालतू जानवरों से भी दोस्तों जैसा प्यार करते थे। अब अपनों के साथ भी जानवरों जैसा बर्ताव होने लगा है।

हम दोस्ती, एहसान-ओ-वफा भूल गए हैं। जिन्दा तो हैं, जीने ·क़ी अदा भूल गए हैं।

किसी शायर ·क़ी नजर में दोस्ती और वफा भले ही जीने ·क़ी अदा हो, बदलते वक्त में दोस्ती के लिए एक खास दिन तय है और वह एसएमएस क़ी मोहताज है।

Sunday, April 18, 2010

हम दायित्व निभाएंगे

नहीं , चिंतित होने की कोई बात नहीं
इन्टरनेट
बच्चों की किताबों
खिलौने की दुकानों में
अब भी नजर आते हैं ढेर सारे पशु-पक्षी
हम इन्हें दिखाएंगे बच्चों को
और बताएंगे कि
ऐसे होते थे चीता और बाघ
यूं होती थी गोरेया
और वह
जो काले रंग का है, उसे कौवा कहा जाता था
और यह भी कि जब वह छत की मुंडेर पर बोलता था
तो लोग शगुन मानते थे
रिंगटोन से निकलती कू-कू सुनाएंगे बच्चों को
और बताएंगे कि कुछ इसी तरह कूकती थी कोयल
माल से पानी की बोतल खरीदकर लौटते समय बताएंगे
कि रस्सी से बाल्टी बांधकर कुएं में डालनेभर से
मिल जाता था शुद्ध-शीतल पानी
हम बच्चों को बताएंगे
जरूर बताएंगे
और इस तरह आनेवाली पीढ़ी के लिए अपना दायित्व निभाएंगे।

Monday, March 8, 2010

तो हम नहीं होते

तो हम नहीं होते

दुनिया के बदलाव व विकास में उसकी सबसे बड़ी भूमिका है। यह अलग बात है कि आज भी उसकी दुनिया में सब कुछ पहले जैसा ही है। सूरज की पहली किरण के आने से पहले ही जाग जाती है। सास-ससुर को चाय की प्याली समय पर मिल जाए, स्कूल जाते बच्चों, काम पर जाते पति को नाश्ता, टिफिन समय पर तैयार हो जाए। सभी के कपड़े धुले हों, बटन सही-सलामत हों। बहु जरा सुनना तो, अजी सुनती हो, मम्मी मेरे मोजे कहां हैं, जैसी आवाजों के बीच वह चकरघिन्नी की तरह इधर से उधर दौड़ती रहती है। इसी बीच घर का आंगन भी साफ-सफाई के लिए बुला लेता है। यह तो दिन की शुरूआतभर है। देर रात तक विभिन्न भूमिकाओं के बीच संतुलन साधने की कोशिश चलती रहती है। सास की थकान मिटाने की चिंता और अंत में पति की खुशी। इन सारी व्यस्तताओं, जिम्मेदारियों के बीच चेहरे पर सजी रहती है मुस्कान। पलक झपकते ही हाजिर होती है वह, सभी की फरमाइशें पूरी करती हुई। सभी की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए। सभी के सपनों को पूरा करते हुए उसका अपना कोई सपना नहीं रह जाता। दूसरों के सपनों से जोड़ लेती है आंखें।गांव में जाड़े की सुबह, जब सभी रजाई में दुबके रहते हैं, वह नहाकर आंगन की तुलसी के सामने प्राथॆना करती नजर आती है। चूल्हे पर खदबदाते भात की आवाज पर कान धरे, दूध की उबाल को संभालने का जिम्मा लिए। उठ चुके बच्चे के मुंह में टपका देती है अमृत की बूंद। शहर में बेशक वह बदली भूमिका में दिखाई देती है लेकिन वह पहले से ज्यादा चुनौतीपूणॆ है। शरीर पर चुभती नजरों के चक्रव्यूह से नहीं निकल पाती वह। बस में टकरा ही जाता है कोई। कायॆस्थल पर निकटता पाने व बढ़ाने की कोशिश में लगे लोग। कौन है वह, मरुस्थल में उद्यान सी। धूप में छाया सी। आंगन में तुलसी सी। कानों में लोरी सी, आंखों में हरियाली सी, कविता सी, गजल सी, सर्दी में आग सी, गर्मी में जल सी। गोद में सितार सी, होठ पे बांसुरी सी। कौन है वह? गौर से देखिए, दिखाई देगी। वह दया है, क्षमा है, करुणा है, मैत्री है, विश्वास है, सृजन है, शक्ति है आस है, उम्मीद है, उजास है विश्वास है। उसी ने हमें अपनी कोख में पाला है, सजाया है, संवारा है, दुलारा है, संभाला है। दुनिया में जो कुछ भी सुंदर है, उसी की देन है। वह हमारी जमीन है, आकाश भी। उसी से मिले हैं संस्कार मनुष्य होने व बने रहने के। वह नहीं होती तो हम नहीं होते।