Thursday, December 22, 2011

जीवन=प्रेमगीत

आज एक गीत की चर्चा करने का मन है। यह ऐसा गीत है जब भी सुनता हूं, पहले से ज्यादा सुंदर लगता है, युवावस्था के बाद की पत्नी की तरह, नित नूतन और चिरयुवा। प्रश्न उठता है कि युवावस्था के बाद की पत्नी की तरह क्यों? मेरे खयाल से युवावस्था एक खुमार की तरह है जिसके प्रभाव में आप प्रेम की गहराइयों तक नहीं उतर पाते। युवावस्था में ज्यादातर प्रेम शरीर के स्तर पर तक सीमित रह जाता है जो प्रेम की नदी का पहला किनारा तो हो सकता है, गहराई नहीं।
जी हां, यह गीत जब भी सुनता हूं, यह मुझसे कहता है, मुझे सिर्फ सुना तो मुझे चूक जाओगे। मेरे  भीतर उतरो, या मुझे अपने भीतर उतर जाने दो। डूबो। मुझे पियो, मुझे जियो।
इस गीत में प्रेम है। वैसे तो हर गीत में होता है, प्रेम के बिना गीत कैसे उपज सकता है? वही तो धरती है जिसपे बीज बोये जाते हैं, फूल खिलते हैं। इस गीत में प्रेम पूर्णिमा के चांद की तरह पूर्ण है, इठलाता हुआ, दमकता हुआ, भरा हुआ, छलकता हुआ, चांदनी लुटाता हुआ। गीत की कोई भी परिभाषा, कैसी भी कसौटी हो, यह खरा उतरता है। गीत अपने आप में पूर्ण इसलिए भी है क्योंकि यह श्रोता के भीतर एक संसार बसा देता है, उसे एक ऐसे लोक में ले जाता है जहां सिर्फ प्रेम है। गीत का एकएक शब्द कलम से नहीं, दिल से निकला है। तभी तो इसमें अरमानों की उड़ान है, सपनों का बयान है। गीत बताता है कि प्रेम हो जाने के बाद कैसे धरती छोटी लगने लगती है और इस दुनिया के सारे सुख फीके और थोड़े। मन चांद-सितारों के पार कहीं खो जाना चाहता है। जहां तक संगीत का सवाल है, गीत में उसकी भूमिका दुल्हन की मांग में सिन्दूर की तरह है। गीत में जान तो पहले से ही थी, संगीत ने उसे जानदार बना दिया है। बेशक, आपने इस गीत को पहले सैकड़ों बार सुना होगा, इस बार सिर्फ सुने नहीं, इसे भीतर उतरने दें। अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति होगी। क्योंकि यह सिर्फ गीत नहीं, इसमें प्रेम है, पूर्णिमा की चांद की तरह निर्मल, भावविभोर व मंत्रमुग्ध करनेवाला।
गीत प्राणों में उतर रहा हो और सहजस्फूर्त ढंग से यदि होठ गुनगुनाने लगें तो उन्हें रोकिएगा मत। जीवन एक गीत भी है। जिंदगी गाती है आप कौन होते हैं रोकनेवाले।  गीत आपका हाथ पकड़कर ले जाएगा, ऐसी दुनिया में जहां प्रवेश की एकमात्र शर्त दिलदारी है। प्रतिक्रिया तभी दें जब यह गीत मन को प्रेम की मधुशाला में ले जाए और प्यास बुझने के साथ ही प्यास बढ़ने का एहसास हो।
इस लिंक पर क्लिक करें. (गीत यू  ट्यूब से साभार)

http://www.youtube.com/watch?v=l2bl57tFlLQ&feature=related

Saturday, December 3, 2011

ऋण लेकर 'घी पीने' का नतीजा

उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर नब्बे के दशक में जिस पूंजीवादी व्यवस्था के लिए पलक-पांवड़े बिछाए गए थे, उसके दुष्परिणाम अब भयावह रूप में सामने आने लगे हैं. जिस देश में आदमी नमक-रोटी खाकर चैन की नीद सोता था, वहीँ अब बेचैनी और तनाव के शिकंजे में कसमसाते लोगों की संख्या बढ़ रही है. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जहाँ चादर देखकर पांव पसारने की सीख  दी जाती थी थी वही ऋण लेकर घी पीने की मानसिकता को बढ़ावा दिया गया.जहाँ संयम जीवन का आधार था, वहीँ असीम भोग की लालसा की तृप्ति के साधन जुटाने की होड़ मच गई. बाज़ार ग्राहक का इंतजार करने के बजाय सीधे उसके घर में घुसने लगा, आसानी से उपलब्ध ढेर सारा ऋण लेकर. वही ऋण अब जानलेवा साबित हो रहा है.
देश में ऋण के बोझ से दबे कुल दस हजार से अधिक लोगों ने वर्ष 2010 में मौत को गले लगा लिया. जो ऋण हँसते-हंसते लिया गया था, बह करुण क्रंदन का कारण बन गया.अनंत इच्छाओं और सपनों को पूरा करने के लिए बिना सोचे-समझे ऋण का सहारा लेने का ही नतीजा है कि किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में लोग मौत के दरवाजे पर दस्तक देने लगे हैं।
बेंगलूरु में शुक्रवार को एक चिकित्सक परिवार के चार लोगों की आत्महत्या से एक बार फिर हमारे जीवन की दशा और दिशा पर सवालिया निशान लग गया है। आत्महत्या करने वाले उस वर्ग से हैं जिसे प्रबुध्द ही नहीं, जीवनदाता भी कहा जाता है। आखिर क्या कारण है कि जिन्हें जिंदगी से लोगों को जोड़ने की भूमिका निभानी चाहिए थी, वही दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। जाहिर है, सपनों और हकीकत के बीच तालमेल टूट रहा है जिसके कारण सपने लहुलुहान हैं। हम सुख व संतोष ऐसी जगह तलाश रहे हैं, जहां वह है ही नहीं। कहां गई वह खुशमिजाजी, वह जिंदादिली जो गरीबी में भी लोगों को खुशहाल रखती थी? कहाँ खो गए वो जीवन मूल्य जो कठिन परिस्थितियों में भी आशा और विश्वाश से हमें जोड़े रखते थे.आखिर क्यों बाहर से समृध्द दिखने के बावजूद हम भीतर से दीन- हीन और दरिद्र होते जा रहे हैं.दिखावे और झूठी शान के पीछे भागते समय हमें यह सोचना ही होगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। जरूरत और लोभ के बीच का अंतर हमें समझना ही होगा और यह भी कि सम्पन्नता व सफलता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण सार्थकता है।

Saturday, November 26, 2011

बीज प्यार के बोयें हम.

आज जो ये दिन बीत रहे हैं
लम्हा- लम्हा रीत रहे हैं.
बातें हैं, मुलाकातें हैं
यह सब कल की यादें हैं.

आओ इन्हें संजोये हम
बीज प्यार के बोये हम.

फिर न वक्त हमारा होगा
कुछ भी नहीं दुबारा होगा.
हर एक पल जीभर जी लें .
जीवन मधु छककर पी लें .

समय व्यर्थ न खोएं हम
बीज प्यार के बोयें हम.

जीवन हो निरभ्र, निर्भार
जैसे खुशबू, हवा, सितार
अहंकार के कंकण-पत्थर
बोझ बने  बैठे छाती पर

और न इनको ढोएँ हम
बीज प्यार के बोयें हम.

Monday, October 24, 2011

उजास ही उजास हो

सुख- समृध्दि, शांति, सौहार्द के दीप जलें
                     हर दिशा में फैला उजास ही उजास हो.
आँखों में उम्मीद और दिलों में मोहब्बत पले
                    सभी कि वाणी में गीत-ग़ज़ल सी मिठास हो.
सुन्दर, सुखद, शुभ फलदायी हो वर्तमान
                उज्ज्वल भविष्य का भी हमें विश्वाश हो
सिर्फ अपनी ही चाह, तो भटकाएगी राह
              दूसरों की ख़ुशी में भी ख़ुशी का एहसास हो.


ब्लॉगर मित्रों सहित सभी को दीपोत्सव की शुभकामनायें.

Friday, October 21, 2011

मेट्रो रेल का स्वागत.

विकास की बुलंदियों को छू रहे बेंगलुरु के लिए आज का दिन ऐतिहासिक है. तमाम विवादों, विरोधों और परीक्षणों से गुजरने के बाद  लगभग 1,540 करोड़ की लागत से आख़िरकार मेट्रो रेल पटरी पर दौड़ी.इसके साथ ही बेंगलुरु अत्याधुनिक परिवहन व्यस्था वाला देश का तीसरा महानगर बन गया. यह एक संयोग ही है की मेट्रो रेल सबसे पहले उन महानगरों में चल रही है जो  सर्वधर्म समभाव व् बहुरंगी संस्कृति के पोषक हैं. ·कोलकाता व् दिल्ली की तरह बेंगलुरु में भी पूरे देश की सांस्कृतिक विविधता के दर्शन होते हैं. यही इसके बेजोड़ विकास का कारण भी है. जहाँ तक बेंगलुरु की परिवहन व्यवस्था का सवाल है, वर्ष 1940 में बेंगलुरु ट्रांसपोर्ट कंपनी की स्थापना के साथ ही सार्वजनिक यातायात व्यवस्था की शुरुआत हुई थी, लगभग 98 सरकारी बसें सड़कों पर दौड़ी थी. लगभग 71 साल बाद परिवहन व्यस्था में व्यापक बदलाव हो रहा है.परिवहन विकास की धुरी है.अधिकांश सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ क्योंकि वहां आवागमन के साधन सुलभ थे. आधुनिक समय में भी आधारभूत ढांचा ही विकास की मुख्य शर्त है.
  नम्मा मेट्रो का जोरदार स्वागत स्वाभाविक है. यह भारी यातायात से कराहते शहर  के लिए उम्मीद लेकर आई है.स्वागत है नम्मा मेट्रो.

Wednesday, October 12, 2011

जग जीत गए जगजीत

जगजीत सिंह जग को जीत कर चले गए.कल से ही सोच रहा हूँ कैसे श्रध्दासुमन अर्पित करूं. नहीं करूँगा तो एक अपराधबोध रहेगा क़ि मुझसे इतना भी न हुआ.पहली बार किसी धारावाहिक  में उनका गीत सुना था, हम तो हैं परदेश में, देश में निकला होगा चाँद. डॉ राही मासूम राजा के गीत को जगजीत ने इस अंदाज़ में गाया क़ि, लगा जैसे विरह वेदना को जुबान मिल गई. पहली बार जब टेप रिकॉर्डर खरीद  रहा था तो इस बात क़ि ख़ुशी थी क़ि अब जगजीत के कैसेट खरीद सकूँगा.कई बार उनकी कैसेट खरीदना खाना खाने से ज्यादा जरूरी लगा.उस दौर में और भी कई ग़ज़ल गाने वाले थे लेकिन जगजीत उनसे अलग ही नहीं, ऊपर भी थे. संघर्ष के दिनों में बाज़ार के सामने झुके लेकिन शोहरत क़ी  बुलंदी पर पहुँचने के बाद बाज़ार क़ी फिक्र ही नहीं क़ी. शराब और शबाब के दायरे से ग़ज़ल गायकी को बाहर निकाला. नए वाद्यों का प्रयोग किया. सारंगी, हारमोनियम की जगह वायलिन और गिटार का प्रयोग हुआ तो ग़ज़ल मुस्कुरा उठी. सबसे बड़ी बात, जगजीत ने ग़ज़ल को आम आदमी की दिन चर्या से जोड़ा. ग़ज़ल उसके उल्लास की गवाह बनी तो सपनों और संघर्ष की साथी भी.अब मैं राशन क़ी कतारों  में नज़र आता हूँ. अपने खेतों से बिछड़ने क़ी सजा पाता हूँ. जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है, दो आँखों में एक से रोना एक से हँसना है. मिली हवाओं में उड़ने क़ी वो सजा यारों कि मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारों, वो रुलाकर हंस न पाया देर तक, जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक, जाने कितनी  गज़लें हैं जो उन्होंने बाज़ार को ठेंगे पर रखकर गायीं. माँ  सुनाओ मुझे वो कहानी, जिसमे राजा न हो, न हो रानी.जैसी गजलों को संगीतबध्द  करते हुए जगजीत बाज़ार को उसकी औकात बता रहे थे. उनकी ग़ज़लों में आम आदमी का दर्द, उसकी ज़द्दोज़हद, उसकी जिद और जूनून को अभिव्यक्ति मिलती थी.यही कारण है कि जगजीत को सुनना अपने भीतर उतरना, खुद से रूबरू होने जैसा था. जवान बेटे की मौत के बाद उनकी आवाज़ की कशिश जैसे और बढ़ गई. मुश्किलें इतनी पड़ी हमपे की आसां हो गई गा ही नहीं रहे थे, जी रहे थे. हजारों ख्वाहिशे ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले, मिर्ज़ा ग़ालिब की यह ग़ज़ल जैसे जगजीत की आवाज़ के लिए बेक़रार थी. गज़ल का हर लफ्ज़ जगजीत की आवाज में उतरकर अपनी रूह से मिल जाता था या यूँ कहें की उनकी गायकी का स्पर्श पाकर ग़ज़ल वैसे ही सज जाती थी जैसे सिन्दूर पाकर कोई सुहागिन. 
जगजीत के जाने से ग़ज़ल वैसे ही अकेली हो गई है जैसे भरे मेले में वह हाथ छोड़ जाये जो उसे मेले में लाया था. 


ऊपर एक ग़ज़ल का लिंक दिया गया है, सुनें, ग़ज़ल सचमुच दिल को छू  लेगी.
(चित्र desirulez.net व विडियो u tube से साभार)

Tuesday, September 20, 2011

हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है

इन दिनों पूरे देश में हिंदी को लेकर जबरदस्त उत्साह है. अख़बार हिंदी के गुणगान और महत्व से भरे पड़े हैं. हिंदी के महत्व और उपयोगिता पर प्रकाश डाला जा रहा है. लाखों का बजट है.  कार्यालयों में हिंदी समारोहों की धूम है. अतिथि बुलाये जा रहे हैं, लिफाफे थमाए जा रहे हैं. स्वागत हो रहा है. भाषणों का दौर है.फूल मालाएं हैं,  तालियाँ हैं. गर्दने उचक रही हैं, कैमरे चमक रहे है. कबीर प्रासंगिक हो गए हैं, तुलसी भी याद किये जा रहे हैं. हिंदी उत्सव की धारा बह रही है, लोग हाथ धो रहे हैं और अघा जाने के बाद मुंह भी. हर कोई गदगद है. मंत्री से लेकर संतरी तक, कौन है जो खुश नहीं है. हिंदी की झोली में सभी के लिए उसकी हैसियत के हिसाब से खुशियाँ हैं. बड़े अफसर लाखों कूट रहे हैं, छोटे- मोटे अधिकारी थोड़े-बहुत में ही मुंह चौड़ा कर रहे हैं. हिंदी नए-नए रूप धारण कर घर पहुँच रही है, चेहरे की लालिमा बढ़ा रही है. हिंदी पिज्जा बन रही है, गहनों व साड़ियों के रूप में ढल रही है. शाम को हिंदी छलकने और खनकने लगती है. हिंदी शुरूर बनकर छा जाती है. हिंदी की जयजयकार है. हिंदी की कृपा से सभी लोग खुश हैं. हिंदी से जुड़े लोग व्यस्त है. रोज कहीं न कहीं अतिथि बन रहे हैं. जो नहीं बने हैं, जुगाड़ में लगे हैं. भाषणों में हिंदी के प्रति लगाव देखते और सुनते ही बनता है. गजब का जोश है ऐसा लगता है कि हिंदी का किसी भी वक्त कल्याण हो सकता है. आश्चर्य है, इसके बावजूद कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी का समुचित प्रचार-प्रसार नहीं हो रहा. जा क़ी रही भावना जैसी हिंदी को तिन देखि तैसी. कुछ घोर निराशवादी लोग कह रहे हैं कि हिंदी के आयोजनों में नया कुछ भी नहीं है, यह तो हर साल होता है. दरअसल, हिंदी को लेकर सशंकित वही हैं, जिन्हें कहीं बुलाया नहीं जा रहा है. ढेर सरे लोग ऐसे हैं जो पहले हिंदी की दशा-दुर्दशा पर विगलित हो जाते थे, लेकिन जब पूछ होने लगी, तो उन्हें हिंदी के भविष्य की चिंताए निर्मूल  लगने लगीं. हिंदी के मंच पर सम्मान आदि मिलते ही आशंकाए वैसे ही उड़ गयीं जैसे सूरज के निकलते ही कुहासा गायब हो जाता है.
आखिर जिसके लिए करोड़ों खर्च हो रहे हो उसकी दशा ठीक न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? कायदे से तो हिंदी को इतना बड़ा बजट देखकर ही किसी रूपगर्विता की भांति इतराना चाहिए और खुश हो जाना चाहिए. आखिर अब और क्या और क्यों चाहिए? कवियों ने भारत माँ के माथे की बिंदी तक कह दिया.  अमरीका जैसे देशों में हिंदी सम्मलेन होने लगे. नयी पीढ़ी भी हिंदी को आवर नेशनल लान्ग्वेज मानती ही है. फिर भी लोगबाग हिंदी के भविष्य को लेकर खामखाह चिंतित हो रहे हैं. जगह-जगह चल रहे हिंदी समारोहों को गौर से देखिये, हिंदी का भविष्य उज्ज्वल नजर आने लगेगा.

Friday, August 12, 2011

सावन जा रहा है


सावन जा रहा है, रुआंसा सा। बदले वक्त में इसकी  उपेक्षा ही नहीं, तिरस्कार  भी होने लगा है। कहां तो प्रतीक्षा होती थी, जोरदार स्वागत होता था। अब सावन आता है, चला जाता है, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। 
सावन सभी के लिए अलग-अलग अर्थ लेकर  आता है। यही वह समय है, जब साधू-संत एक स्थान पर ठहरकर  भौतिक  सुखों के  प्रति संयम का  संदेश देते हैं। त्योहारों की  श्रृंखला शुरू होती है, नई उमंग का  संचार होता है। वसुंधरा तृप्त व हरीभरी हो जाती है। कोपलें फूटती है, हरियाली की  चादर बिछ जाती है और नदियां उफन पड़ती हैं। सावन की  बूंदें तन-मन में ऐसी पुलक   जगा देती हैं कि प्रिय के  बिना सबकुछ फीका, अधूरा व रसहीन लगने लगता है। बादल गरजते हैं, बिजली कड़कती है तो आरजुओं को  जैसे पंख लग जाते हैं। तभी तो प्रियतमा ताने देकर कहती  है कि  तेरी दो टकिया दी नौकरी में मेरा लाखों का  सावन जा रहा है। सावन ही वह महीना है, जिसमें जियरा वैसे झूमता है, जैसे बन  में मोर। भारतीय संस्कृति कि  यह विशेषता तो देखिए कि जो माह प्रेम के  लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त माना जाता है, उसी माह में संयम व सदाचार का संदेश भी गुंजायमान होता है। दरअसल, प्रेम क़ी आतुरता और मचलते अरमानों पर यदि संयम का अंकुश न हो तो कैसा प्रेम? फिर तो प्रेम क्षुद्र तक  ही सीमित रह जाएगा। 
साहित्यकारों को  सबसे ज्यादा आंदोलित, प्रेरित करने वाला माह है, सावन। कभी  यह किसी क़ी  जुल्फों में नजर आता है तो कभी  कजरारे नैनों में और हां कभी-कभी किसी के नैना भी सावन-भादों बन जाते हैं। 
 बदलते वक्त में सावन क़ी  पहचान दांव पर लगी है क्योंकि अब न तो सावन के  झूले हैं और न ही कजरी। धान रोपती महिलाओं का गीत तो जैसे अब बीते जमाने क़ी  बात हो गई। 
हमरी भीगी जाए रेशम क़ी सारी पिया, बोय जिनि कुवारी (धान) पिया ना, झमक़ी झुक़ी आई बदरिया कारी, झूला झूलें  नन्दकिशोर, धीरे-धीरे पऊंवा धरईं बारी धनिया गोड़े घुघुरवा बाजे ना, रुमझुम बरसे बादरवा, मस्त हवाएं आईं पिया घर आजा, आजा पिया घर आजा। जाने कितने  गीत हैं जिनका सावन से अटूट नाता था, जो झूलों क़ी  पेग के  साथ कानों में रस और जीवन में उल्लास घोलते थे।इनके बिना सावन बरसता नहीं, बे-रसता है.

Thursday, June 9, 2011

हम कहाँ जा रहे हैं

झुण्ड से बिछड़े दो हाथियों ने 8 जून को मैसूर में एक आदमी को रौंद कर मारा डाला और चार लोगों को घायल कर दिया. गुस्साए हाथियों ने पालतू पशुओं पर भी हमला किया और खूंटे से बंधी एक गाय को मार डाला.इस  दौरान शहर के विभिन्न इलाकों में घन्टों भगदड मची रही. घंटों की मशक्कत के बाद बेहोशी का इंजेक्शन देकर हाथियों पर काबू पाया जा सका.
प्रत्यक्षदर्शियों और वन विभाग के आधिकारियों के अनुसार रास्ता भटककर शहर आ गए हाथी बदहवासी में इधर-उधर भाग रहे थे और बाहर निकलने का रास्ता तलाश कर रहे थे. सोच रहे होंगे कि यह कहाँ आ गए हम जहाँ बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है. कंक्रीट के जंगल में उन्हें रास्ता नहीं मिला तो आपा खो बैठे.
यह महज एक खबर नहीं. यह कोई नई बात भी नहीं.आहार की तलाश में जंगली जानवरों का रिहायशी इलाकों में घुस आना और पशुओं तथा इंसानों पर हमला करना अब आम बात है. इस पर हमें परेशान क्यों होना चाहिए.आखिर यही सब तो हम करते रहे हैं, आदिकाल से. सभ्यता  के तमाम दावों के बावजूद न तो भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक हुआ और न ही ख़ाल खींच लेने की आदिम हिंसा से ऊपर उठ पाए.
 घटते  वन क्षेत्र और वहां भी आदमी की बढती दखलंदाज़ी से जंगली जानवरों का जीना मुश्किल हो गया है. लेकिन चूँकि अभिव्यक्ति के माध्यमों और मीडिया तक जंगल में रह रहे जानवरों क़ी पहुँच नहीं है, लिहाजा वहां मनुष्य के आतंक क़ी बहुत ज्यादा ख़बरें नहीं आ पातीं. मेरे अपने गाँव से गोरैया विदा हो चुकी है, अटरिया पे कागा अब नहीं बोलता और मरे जानवरों क़ी सफाई करनेवाले गिध्द भी अब गायब हैं. हमने ऐसे कीटनाशकों का प्रयोग किया कि चिड़िया बेमौत मारी गई, जानवरों को ऐसे इंजेक्शन दिए कि साफ करनेवाले गिध्द खुद साफ़ हो गए.

  • बढ़ती आबादी और विकास की आवश्यकताओं की पूर्ति की खातिर जंगलों के सफाये से जैव विविधता को भंयकर खतरा उत्पन्न हो गया है। जानवरों, जीव जंतुओं का अस्तित्व खतरे में है। यही कारण है कि जंगल में भगदड़ मची हुई है और आदमी और जंगली जानवरों के बीच टकराव बढ़ रहा है.यह तो तय है कि जानवर अब हमें नहीं मिटा सकते लेकिन यह भी सच है कि जानवरों को मिटाकर हम खुद को नहीं बचा सकते. दूसरों के अस्तित्व को मिटाकर खुद के बचे और बने रहने का भ्रम कब टूटेगा? रिहायशी इलाकों में पहुंचकर जानवरों को  जरुर अपनी गलती का एहसास होता है और वे सोचते हैं कि कहाँ आ गए लेकिन हम यह कब सोचेगे कि हम कहाँ जा रहे हैं.जब फिर कोई जानवर शहर में घुसकर उत्पात मचाएगा? वैसे  भी, उत्पात के लिए अब हम जानवरों पर निर्भर नहीं.

Thursday, May 26, 2011

आशा, सपने और यथार्थ

  लम्बे समय के बाद ब्लॉग के लिए कुछ लिखने बैठा हूँ. वह भी आज इसलिए संभव हो रहा है क्योंकि रात दफ्तर में ही गुज़र रही है. अन्यथा, देर रात घर पहुंचने और सुबह देर से जागने के बाद इतनी ऊर्जा ही कहाँ बचती है कि कुछ ऐसा किया जाये जो जरुरत नहीं, ख़ुशी के लिए हो.मुझे लगता है कि लगभग 40 साल तक आप सपनो को हकीकत में बदलने के लिए पूरी आशा और विश्वाश से जुटे रहते हैं, उसके बाद आशा पर यथार्थ हावी होने लगता है.सपने, इच्छाएं आपको संघर्ष की ओर तब भी ले जाते हैं लेकिन अब आप तेरे फूलों से भी प्यार तेरे काँटों से भी प्यार जैसे समभाव के साथ मैदान में उतरते हैं.आपको क्रोध आता है तो आपकी मजबूरियां सामने खड़ी हो जाती हैं, आपको थकान लगती है तो बच्चों का चेहरा सामने होता है.ऐसे में रोने की स्थिति बनने पर एक खिसियाई सी मुस्कान आपके चेहरे पर होती है और ख़ुशी आये तो आपकी आँखों से टपकने लगती है.आप न जीभर रो पाते है, न खुलकर हंस पाते है,जिंदगी आपको  एक अभिनेता बना देती है जिसका अपना कोई वजूद नहीं, उसे एक पात्र को जीना है,जो वह नहीं है.
दरअसल, यह उम्र का वह दौर है जब आदर्श, सच्चाई, इंसानियत जैसे शब्दों से आपका मोहभंग होने लगता है. आप देखते हैं कि आपके आस-पास जो दुनिया है, वहां ऐसे शब्दों का कोई वजूद नहीं.जो  होना चाहिए और जो है उसके बीच का अंतर आपको निराश करता है और भाग्यवादी बनाता है.
आपका क्या ख्याल है?

Thursday, March 10, 2011

इसमें कोई महानता-वहानता नहीं

अरे! आप कब आये? रुकिए, रुकिए, मैं आ रहा हूँ.
कक्कू ने कहा तो मेरे कदम रुक गए.
मेरी इच्छा हो रही थी कि वहां तक जाऊं, जहाँ चम्पा काकी थीं.
कक्कू गावं के सबसे बुज़ुर्ग  लोगों में से हैं, इसीलिए सारा गाँव उन्हें कक्कू कहता है.पास आने पर मेरा हाल पूछने लगे, मैंने कहा, पहले आप बताइए कि काकी कैसी है? बोले, क्या बताऊँ. कोमा में है.देखो जितने दिन चल जाए. कुछ बोल नहीं पाती.आँखों के कोरों से जब-तब कुछ आंसू टपकते हैं.बस.
डॉक्टर क्या कहते है,
जवाब दे चुके हैं.,
कक्कू के स्वर में कुछ ऐसा था, जिसे शब्दों में बता पाना कम से कम मेरे लिए संभव नहीं है.
मैंने कहा, आपने मुझे वहां आने से क्यूँ रोक दिया.
बोले, आपका वहां आना ठीक नहीं था, मैं उसके कपडे बदल रहा था.थोड़ी देर रुके फिर बोले, अब वहां कोई नहीं जाता. अब तो सब कुछ खाट पर ही....नहलाना- धुलाना, कपडे बदलना, जैसे-तैसे कुछ खिला देना. इन्हीं सब में लगा रहता हूँ.
बात आगे चले इससे पहले बता दूं कि मैं इलाहाबाद जिले के एक गाँव का हूँ और यह बात वहीँ की है. शहर से (हमारे गाँव में परदेश कहा जाता है ) साल में एकाध बार ही गाँव जाना हो पाता है. गाँव जाने पर लोग देखने या मिलने जरूर आते हैं.छोटा सा गाँव है, अभी थोडा-बहुत अपनापन बना हुआ है. मिलने आने वालों में सबसे आगे हुआ करती थीं चंपा काकी. कहाँ है हमार बेटवा, कहते हुए आतीं. जोर-जोर से बोलतीं, बड़ी आत्मीयता से. बड़ी दबंग महिला थी. गाँव गया और जब चम्पा काकी मिलने नहीं आई तो पूछा कि चम्पा काकी नहीं दिखाई दीं. बताया गया कि बीमार है.मैंने कहा मैं मिलकर आता हूँ. बताया गया कि अब न तो वो बोल पाती हैं न ही कुछ सुन या समझ पाती हैं. मुझे आश्चर्य हुआ कि चम्पा काकी न बोल पायें, ऐसा कैसे हो सकता है?
 बहरहाल, सबसे आगे बढ़कर घुलने-मिलनेवाली चम्पा काकी, सबका हाल पूछनेवाली चम्पा काकी सचमुच बोल पाने में असमर्थ थी. वक़्त इतना क्रूर हो सकता है, कौन जानता था.
आठ दिन गाँव में रहा, जब भी जाता कक्कू को काकी की तीमारदारी में लगा पाता.कभी उनके कपडे साफ़ करते नजर आते, कभी नहला रहे होते. या कपडे पहना  रहे होते, कभी बालों में कंघी करने के बाद मांग में सिन्दूर भर रहे होते. हर बार कहते, रुकिए मैं आ रहा हूँ. मुस्कुराकर पूछते क्या हाल है.उनके चेहरे पर मैंने कभी खिन्नता नहीं देखी. कभी नहीं लगा कि वह कोई ऐसा काम कर रहे हैं जो उन्हें पसंद नहीं है. कई माह से बीमार पत्नी की सेवा कर रहे थे, बिना किसी शिकायत के.
पिछली बार गाँव गया तो काकी जा  चुकी थीं. मैंने कक्कू को काकी की सेवा की याद दिलाई और कहा, वह महान कार्य था. बोले, इसमें कोई महानता-वहानता नहीं. वह मेरी धर्म पत्नी थी और उसकी देखभाल मेरा धर्म. उसकी जगह मैं होता तो वह वही करती जो मैंने किया. छोडो,अपना सुनाओ, कैसे हो?


Monday, March 7, 2011

शांति सम्मेलन

हाल ही एक शांति सम्मेलन में जाना हुआ. आयोजन चूँकि नगर के एक प्रसिध्द सेठ की ओर से था, लिहाजा खाने-पीने का समुचित प्रबंध था. शुरू में ही आगंतुक लोग व्यंजनों पर ऐसे टूटे जैसे कोई चांस न लेना चाहते हों. मैंने भी तर माल उड़ाया तो पेट में शांति सी महसूस हुई और मुझे लगा कि ऐसे आयोजन निरर्थक नहीं होते.
सबसे पहले सेठ जी ने स्वयं माइक संभाला. बोले, मेरा नाम शांतिलाल है.
मैं बचपन से ही शांति का समर्थक रहा हू.किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते मैं शांति का प्रेमी और पुजारी बन चुका था. पूरी दुनिया को भले ही आज  शांति कि आवश्यकता महसूस हो रही हो, मैं युवा होते ही समझ गया था कि शांति के बिना सब कुछ बेकार है.सभागार करतल ध्वनि से गूँज उठा.
सेठ जी और जोश में आये.बोले, कॉलेज में पढ़ रहा था तभी मुझे एहसास हो गया कि शांति के बिना मैं नहीं रह सकता. मैं उसे लेकर भाग गया था. मैंने शांति को हमेशा के लिए अपना बना लिया और आज वह मेरी धर्मपत्नी है.तब से लेकर आज तक मैं शांति से ही काम लेता हूँ.मैं आप सभी को आश्वस्त कर देना चाहता हूँ कि शांति मेरे घर में सुरक्षित है.
सेठजी के सारगर्भित भाषण क़ी सराहना में तालियाँ फिर बजीं.
संचालक ने ऊंघ रहे क्षेत्रीय विधायक  से दो शब्द बोलने का अनुरोध किया.विधायकजी इलाके में कई बार और पबों के मालिक थे. कहा जाता था कि इलाके में शांति या अशांति जैसी  कोई भी चीज उनकी मर्ज़ी के बिना नहीं हो सकती थी. राजनीति को  गरिमा मंडित करने से पहले वे क्षेत्र में दहशत फैलाया करते थे.
बोले, मैं शांति का घोर समर्थक हूँ.जिधर से भी गुजरता हूँ शांति छा जाती है.साल में एक बार मैं इलाके में गणेशा को बिठा देता हूँ. लाउड स्पीकर पर हरी ॐ हरी , ॐ शांति ॐ जैसे गाने बजाता हूँ और लोगों को शांति का सन्देश दे देता हूँ.जिस दिन गणेशा को नदी में डालकर आता हूँ, इलाके में अपूर्व शांति होती है. कोई ज्यादा चू-चपड करे तो मैं उसे शांत करना भी जानता हूँ. मैं समझता हूँ क़ी सारे देश के लोग मुझसे प्रेरणा लेकर शांति में सहायक बन सकते हैं.
दर्शकों में मौजूद नेताजी के कुछ आदमियों ने जिंदाबाद के नारे लगाये.
इसके बाढ़ कुछ बुध्दिजीवी  किस्म के लोग बोले.उन्होंने गौतम बुध्द, महात्मा  गाँधी, सौहार्द, अहिंसा, विश्वबंधुत्व जैसे विषय पर बोलना शुरू किया तो अधिकांश लोग जम्हाई लेने लगे. जैसे कि गौतम और गाँधी से ज्यादा अप्रासंगिक और कुछ न हो.कुछ लोग लघु शंका आदि से निवृत होने चल दिए.
मुख्य अतिथि एक केन्द्रीय मंत्री थे.उन्होंने कहा कि आज देश में सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोगों में शांति व् धैर्य क़ी कमी है.विपक्ष संसद में अशांति  मचाये रहता है और मीडिया संसद के बाहर. एक कुत्ता भी कुएं में गिर जाये और उसे बचाने के लिए हेलीकाप्टर नहीं पहुंचे तो मीडिया ऐसा हल्ला मचाता है जैसे अनर्थ हो गया.
उन्होंने कहा, चूंकि विकास के लिए शांति आवश्यक है, इसलिए हम शांति स्थापना के लिए कटिबध्द हैं.ऐसा कहते हुए उन्होंने कमर पर पजामे के नाड़े को कसकर बांधा, लोगों ने तालियाँ बजाई. 
मंत्री ने कहा, सच तो यह है क़ी यदि हम शांति से कम लेना सीख लें तो वह खुद आ जाती है.कुछ  साल पहले उड़ीसा में भुखमरी फैली, हमने शांति से कम लिया, बाद में वहां महामारी फैली और अब वहां शांति है.आज जो महंगाई बढ़ रही है, यह भी शांति में सहायक होगी, बस देखना यह है कि इससे कितने लोग शांत हो पाते हैं. मंत्रीजी ने कहा कि हम सदियों से पूरे विश्व को शांति का सन्देश देते आये है.शांति हमारा स्वभाव है. हमारे धर्मगुरु कहते हैं कि शांति चाहते हो तो शांत हो जाओ, अकर्ता हो जाओ.आइये शांत हो जाएँ.
करतल ध्वनि के साथ सम्मेलन का समापन हुआ. समापन के बाद नाश्ता करते समय अधिकांश लोगों क़ी राय थी कि ऐसे आयोजन समय-समय पर होते रहें.
आपका क्या ख्याल है?

Friday, February 18, 2011

फाल्गुन आ गया है



यदि आपकी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई हो या आपकी जड़ किसी गाँव में हो तो संभव है कि आपको पता हो कि फाल्गुन आ गया है. अन्यथा, फाल्गुन का आना कोई क्रिकेट मैच तो है नहीं कि उसकी पल-पल क़ी खबर आप तक पहुँचाने के लिए प्रचार माध्यम जी-जान से जुटे हों. फाल्गुन का आना कोई रोचक या रोमांचक घटनाक्रम भी नहीं कि सबसे तेज और आगे होने का दावा करनेवाला मीडिया उसके  हर पहलू  को उघाड़े. फाल्गुन के आने का हल्ला मचाकर बाज़ार को भी कोई फायदा नहीं हो सकता. ऐसे में बेंगलुरु जैसी हाई टेक सिटी में रहनेवाले किसी व्यक्ति से यह उम्मीद करना कि उसे पता हो कि फाल्गुन आ गया है, ज्यादती ही तो है.
बेंगलुरु दिन दूनी रात चौगुनी गति से फ़ैल रहा है. अब यहाँ न तो आमों के बौर से फूटती मादक  गंध बची है, न ही अमराई में कूकती कोयल. सरसों की पीली चुनर पहने इठलाती, हवा के हिंडोले पर झूलती, लोटपोट होती गेहूं की बालियाँ भी नहीं हैं.अपने ही रस के भार से बद्द से चू पड़नेवाला महुआ भी तो नहीं है. ऐसे में फाल्गुन के आने का पता चले भी तो कैसे?
इन सभी की नामौजूदगी व् मेट्रो रेल के लिए जगह बनाने की मजबूरी के बावजूद बेंगलुरु किसी महानगर की तुलना में प्राकृतिक रूप से ज्यादा समृद्ध है. यहाँ सैकड़ों किस्म के फूल और विशाल वृक्ष हैं जो बेंगलुरु वासियों को प्रकृति से जोड़े रखने की एकतरफा कोशिश में लगे हुए हैं. आदमी की उदासीनता और भयावह तटस्थता के बावजूद ये हार मानने को तैयार नहीं हैं और कंक्रीट के जंगल, औद्योगिक कचरे और प्रदूषण से लड़ते हुए फाल्गुन के स्वागत में बिछे जा रहे है.
तेज रफ़्तार से, नाक की सीध में आगे बढ़ने की बदहवासी और ढेर सारा पैसा पाने के लोभ में लगे हम यदि फूलों के रंग, रूप, रस और गंध को नहीं देख और महसूस कर पा रहे हैं, हवा की फुसफुसाहट के साथ बजती पत्तों की पाजेब नहीं सुन पा रहे हैं तो इसमें फाल्गुन का क्या दोष?
दरअसल, फाल्गुन कोई महीना मात्र नहीं है, फाल्गुन तो प्रकृति में चल रहे महारास में शामिल होने, उसके साथ एकात्म भाव से जुड़ने और मस्त होने का निमंत्रण है, जो प्रकृति हमें हर साल देती है. पाश्चत्य संस्कृति के अन्धानुकरण से उत्पन्न मानसिक विपन्नता में भौतिक सुख समृध्दी  को ही सब कुछ मानकर उसके पीछे निरंतर भागने के कारण उस आनंद और उल्लास से हमारा नाता टूटता जा रहा है, जो हमारा स्वभाव है. हम इतने स्वार्थी और आत्म केन्द्रित होते जा रहे है क़ि दूसरे की मौजूदगी हमें अपनी निजता व् विकास में बाधा लगती है.सह अस्तित्व व् समन्वय के सूत्र हमारे जीवन से गायब हैं.घर परिवार से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक  में तरह-तरह के आयोजन हैं लेकिन इनमे किसी संगति या संगीत का नहीं, महज शोर-शराबे का आभास होता है.

कहा गया है, फाल्गुन में बाबा देवर लागे.एकल परिवारों के प्रचलन के कारण बाबा तो उपेक्षित और तिरस्कृत हैं ही, देवर और भाभी के बीच भी इतनी दूरी पैदा हो गई है क़ि हंसी-ठिठोली क़ी कौन कहे, सहज, सामान्य अपनत्व भी गायब होता जा रहा है. तरह-तरह क़ी मशीनों के बीच जीते-जीते मनुष्य भी एक मशीन बनता जा रहा है.संवेदना के आभाव में अंतर्वीणा बजे तो कैसे? बेशुमार महत्वाकांक्षाओं  के शिकार आधुनिक मनुष्य का जीवन यदि बदरंग है तो फाल्गुन क़ी बसंती बयार या रंग गुलाल क्या करेंगे?
इच्छाओं  और स्वार्थ के अनंत विस्तार के वर्तमान दौर में जबकि उदासी, खिन्नता, नीरसता और तनाव हमारे जीवन को बेढंगा, बदरंग और बेसुरा बना रहे हैं, यदि हमने फाल्गुन को ठीक से नहीं पहचाना तो वह दिन दूर नहीं जब हम स्वयं ही स्वयं को नहीं पहचान पाएंगे. उत्सव हमारा धर्म है और आनंद स्वभाव. फाल्गुन हमें हमारी याद दिलाने आया है.

Thursday, February 10, 2011

तुम हमें ही...


'क्या बात है! क्या चाहिए? 

ताज़ी हवा के झोंकों के बीच यह आवाज सुनकर मैं चौंका। सुबह जल्दी आंख खुलने पर मैं बाग की तरफ निकला था और एक नीम के पेड़ के नीचे खड़ा था।
'क्या मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं?
इस बार आवाज पहले से ज्यादा स्पष्ट थी। 
कौन हो सकता है, मैं सोच ही रहा था कि आवाज फिर उभरी- 'मैं नीम हूं। जिसकी छांव में तुम बैठे हो।
'आप... मैं हकबकाया ,, आप बोल सकती हैं? मेरा आश्चर्य प्रश्न में बदला। 
'हां क्यों नहीं। लेकिन क्या तुम सुन सकोगे?
'क्यों नहीं मेरे दोनों कान सही-सलामत हैं। मैंने कहा। 

'मेरी बात कान से नहीं, दिल से सुनी जा सकती है।
'कहिए, मैं दिल से सुनूंगा। मैंने आश्वासन दिया। 
नीम कहने लगी- 'मैंने मनुष्य के लिए क्या नहीं किया? खुद  गर्मी झेली लेकिन मनुष्य को पत्तियों की ठंडी छांव में सुलाया। जख्मों पर लेप बनी। सुबह दातुन बनकर मुंह साफ किया। यही नहीं, जिन्होंने मेरी पत्तियों का सेवन किया उनकी काया को रोग-दोष मुक्त रखा। खुद कार्बनडाई आक्साइड पीती रही लेकिन मनुष्य को प्राणदायिनी वायु बांटती रही। मेरी सूखी पत्तियों का धुंआ मछरों को भगाता रहा. मुझसे ज्यादा आक्सीजन देने की क्षमता किसी में नहीं। ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने में मैं सदियों से मनुष्य के साथ रही। मेरी पत्तियों को चबाकर पशु पलते रहे।  पहले लोग मुझमें शीतला माता का निवास मानकर मेरी पूजा करते थे। त्वचा रोग में मेरी पत्तियों से नहाते थे। बच्चों को मेरे आशीर्वाद के लिए मेरी पत्तियों पर लिटाया जाता था। मैं कितनी  खुश होती थी। लेकिन अब.....। नीम का गला भर्राने  लगा था। 
'अब मनुष्य बेहद क्रूर और स्वार्थी हो गया है। यह भी नहीं सोचता क़ि हम नहीं रहेंगे तो वह कहाँ रहेगा.
मुझे काट डालने पर तुला है। मेरे भाई-बंधु सब काटे जा रहे हैं।
हम तुम्हारी रक्षा कर रहे हैं और तुम हमें ही .....।
 नीम की सिसकियां उभरने लगीं थीं। मैं बेचैनी और ढेर सारे सवालों से घिरने लगा  था। 

तभी मेरी निगाह घड़ी पर पड़ी। 
मैं तुरंत वहां से चल पड़ा। 
मुझे कार्यालय पहुंचना था-
ठीक साढ़े दस बजे।

Thursday, February 3, 2011

आओ, कुछ पल बैठो साथ!

आओ, कुछ पल बैठो साथ!
कह लें, सुन लें, मन की बात!!
 

गया वक़्त फिर हाथ न आये!
जाये चला ना खाली हाथ!!
 

तुम आये कुछ ऐसे, जैसे !
जेठ के बाद हुई बरसात !!
 

तुम क्या जानो, कितना मुश्किल!
साथ में तुम, वश में जज्बात!!
 

साथी, बहुत कसक देते हैं!
साथ अधूरा, आधी बात !!
 

भूत, भविष्य की ज्ञानी जानें 
वर्तमान है, अपने हाथ!!

Monday, January 31, 2011

देश पिया के जाना है.


क्या खोना, क्या पाना है
बस, मन को बहलाना है.
 
चलने का है नाम जिंदगी
और मौत, रुक जाना है.
 
कंकड़-पत्थर खोजे बाहर ,
भीतर पड़ा खजाना है.
 
हीरे मोती, महल-अटारी 
यहीं, धरा रह जाना है.

बन के दुल्हन, ओढ़ चुनरिया
देश पिया के जाना है.
 
(प्रवीण जी को समर्पित. उनका  लेख चोला माटी के हे रे पढने के बाद भावभूमि पर उक्त पंक्तियाँ अंकुरित हुई.)

Wednesday, January 26, 2011

वही परमपद पाएगा!

वही परमपद पाएगा!  
पंडित भीमसेन जोशी के  निधन से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय  संगीत के एक युग का अवसान हो गया। संगीत उनके लिए एक जिद थी, एक जुनून था। संगीत उनकी  सांसों में बजता था, लहू में दौड़ता था। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि  वे भारतीय संगीत को  समृध्द करने के  लिए ही पैदा हुए थे।
कर्नाटक के  गदग में एक ब्राह्मण परिवार में 4 फरवरी, 1922 को  जन्मे भीमसेन जोशी के पिता गुरुराज जोशी स्थानीय हाई स्कूल के  हेडमास्टर तथा कन्नड़, अंग्रेजी एवं संस्कृत के विद्वान थे। उनकी  इच्छा थी कि  पुत्र डॉक्टर बने। लेकिन बचपन में ही रेडियो सुनकर वे ठिठक  जाते थे। पिता की इच्छा व संगीत के  आकर्षण के बीच आखिरकार संगीत जीता। मात्र ग्यारह साल की  उम्र में जोशी घर से भाग गए। एक  ही बात दिल व दिमाग में थी, संगीत सीखना है। कहां जाएं.. कुछ भी पता नहीं था। बीजापुर में भटकते रहे। क़िसी ने सलाह दी क़ि  ग्वालियर जाओ। ग्वालियर जाने के  लिए रेल में सवार हो गए। टिकट नहीं था तो क्या हुआ, गले में सुर थे। टिकट निरीक्षक  भी गायन से मुग्ध हो गया। रेडियो पर सुने भजन जोशी गाते रहे और रेल भविष्य के एक  दिग्गज संगीतकार को लेकर ग्वालियर की ओर बढ़ती रही। ग्वालियर के  बाद लखनऊ और रामपुर में भी उन्होंने गायन की शिक्षा ली। गुरु की  तलाश में कुदगौल पहुंचे। सवाई गंधर्व के  पैरों में मत्था टेका। उन दिनों गुरु शिष्य को खूब परखने और कसौटी पर कसने के बाद ही शिष्य बनाते थे। जोशी को यह परीक्षा मंजूर थी लेकिन संगीत के बिना जीवन नहीं। पिता को खबर हुई तो देखने पहुंचे और पुत्र को पानी भरते देख आंखें भर आईं। जोशी गुनगुना रहे थे, जैसे वे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ
कार्य र रहे हों। उन्होंने मैं यहां खुश हूं, हकर पिता ·को लौटा दिया।
बताया जाता है क़ि डेढ़ साल के बाद गुरु ने जोशी क़ी पहली
क्षा ली और पहली बार गायन सुनर ही गले लगा लिया। गुरु-शिष्य क़ी परम्परा में ए नायाब हीरा निखरता रहा, कालांतर में जिसने अपनी चम से पूरी दुनिया को मंत्रमुग्ध किया  और संगीत जगत का  कोहिनूर बना।
हिन्दुस्तानी संगीत क़ी  समृद्धि में जोशी का योगदान बेजोड़ है। उन्होंने खयाल गायक़ी क़ी  कला को बुलंदियों पर पहुंचाया। सुगम संगीत व उप शाश्त्रीय गायन से शुरू हुआ सफर रागों क़ी  शुध्दता को साधते हुए, मुरक़ीयों, तानों और मीड़ क़ी  बारीकियां सीखते हुए सिध्दावस्था त
पहुंचा। गाते समय जोशी किसी और ही दुनिया में खो जाते थे लेकिन संगीत क़ी  गहरी समझ और सांसों पर अद्भुत नियंत्रण के कारण भी सुर इधर से उधर नहीं हुए। उनके  गायन में क्या गजब क़ी  सम्प्रेषणीयता थी क़ि शास्त्रीय संगीत क़ी समझ नहीं रखने वाले श्रोता भी एक अलग ही भावलो में पहुंच जाते थे।
हिन्दी फिल्म ‘भैरवी’ व ‘बसंत बहार’ में भी उनक़ी  सुर साधना का उपयोग हुआ। मराठी भक्ति संगीत व
र्नाट के  भाव गीतों के  माध्यम से जोशी क़ी आवाज दोनों ही राज्यों के घर-घर में गूंजती और मिठास घोलती रही। ‘भाग्य दा लक्ष्मी बारम्मा’ जैसे उनके  अनेक  भक्ति गीत हैं, जो संगीत जगत क़ी धरोहर हैं। उनक़ी  आवाज में गन्ने जैसे मिठास थी, जो पोर-दर-पोर बढ़ती ही रही। किराना घराने क़ी परम्परा के संवाहक  जोशी उन गिने-चुने कलाकारों  में शामिल रहे जिन्हें महाराष्ट्र व र्नाट में समान सम्मान मिला। वे सचमुच और सच्चे अर्थों में ‘भारतरत्न’ थे। उनके  निधन से पैदा हुआ शून्य कभी  भरा नहीं जा सकेगा । संगीत के जगत में उन्होंने निश्चित ही उस ‘परमपद’ को  पा लिया जिसे पाने का  संदेश वे इस भजन के माध्यम से देते रहे- ‘जो भजे हरि को  सदा वही परमपद पाएगा’।
(चित्र http://www.newquestindia.com/ से साभार )